एक हेक्टेयर में मछलीपालन कर कमा रहे चार लाख
आर्थिक दृष्टि से लाभदायक
अभी राज्य में मछली का उत्पादन प्रतिवर्ष 64 लाख टन होता है। यह उत्पादन मानवीय आवश्यकता से कम है। इसी को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार मत्स्य शिक्षा संस्थान के सहयोग से यहां के किसानों को मछली व महाझींगा पालन के लिए प्रोत्साहित कर रही है। उन्हें प्रशिक्षण भी दिया जा रहा है। इसके बाद यह आर्थिक दृष्टि से काफी लाभदायक है। नालंदा जिले के नूरसराय अनुमंडल निवासी किसान कवींद्र कुमार मौर्य ने सन 2000 में पांच डिसमिल में तालाब खोद कर मछलीपालन शुरू किया। अब एक हेक्टेयर में मत्स्यपालन कर रहे हैं। इससे प्रतिवर्ष लाखों रुपये कमा रहे हैं। साथ ही एक सफल मत्स्यपालक के साथ-साथ प्रगतिशील किसान के रूप में भी अपनी पहचान बनाने में सफल हुए हैं। एमएससी बॉटनी से करने के बाद खेती एवं मत्स्यपालन करने पर अब उन्हें कोई पछतावा नहीं है। राज्य में मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार योजना के तहत कवींद्र ने आंध्र प्रदेश, कोलकाता, भुवनेश्वर, पंतनगर तथा केंद्रीय मत्स्य शिक्षा संस्थान, वरसोवा (मुंबई) से मृदा एवं प्राणी जांच, मछली एवं महाझींगा का तथा आंध्रप्रदेश के काकीनाडा से भी मत्स्यपालन व बीज उत्पादन का प्रशिक्षण प्राप्त किया।
- इसके अलावा सीतामढ़ी जिला स्थित सरकारी हेचरी से भी कुछ मत्स्य बीज उन्हें मिले। अपने व्यवसाय के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा तकनीकी एवं व्यावहारिक जानकारी के लिए इन्हें हजारों रुपये खर्च करने पड़े। शुरू में तालाब निर्माण खुद कराया। फिर मत्स्य वैज्ञानिकों के संपर्क में आने पर जैसे-जैसे सरकारी योजनाओं की जानकरी हुई, वैसे-वैसे उन योजनाओं का लाभ उठाते हुए कुल लागत का 20 प्रतिशत तक सरकारी अनुदान प्राप्त किया।
- ऐसे की शुरुआत फुलवारीशरीफ, पटना की सरकारी हेचरी से 12000 हजार जीरा लेकर अपने तालाब में डाला, जिसकी कीमत तीन हजार रुपये थी। इस बार उन्हें थोड़ा ही लाभ हुआ। पर, धुन के पक्के कविंद्र ने कड़ी मेहनत से सफल होने के गुर सीखते रहे। दो-दो कट्ठे का तालाब बना कर मत्स्य बीज की नर्सरी तैयार की। सबसे पहले स्पांस नर्सरी में डालते हैं। उसके बाद रियरिंग में, फिर कुछ समय बाद फिंगर को निकाल कर बड़े तालाब में डाल दिया जाता है। इसके बाद ही मछलियों को बाजार में बिक्री के लिए तैयार किया जाता है। इनके तालाब में रोहू, कतला, नैनी, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प व कॉमन कार्प के अलावा देशी मांगुर भी पाली जाती है। आज सात प्रकार की मछलियों का उत्पादन उनके तालाब में होता है। आज तीन से चार लाख की आय सालाना होती है।
वैज्ञानिकों व संस्थानों का सहयोग
- वाटर स्पान टेस्ट में काकीनाडा के जी वेणुगोपाल, राज्य सरकार के मत्स्य विभाग के आरएन चौधरी, केंद्रीय मत्स्य संस्थान, वरसोवा (मुंबई) के वैज्ञानिक डॉ दिलीप कुमार तथा वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ एसएन ओझा का भी मार्गदर्शन समय-समय पर मिलता रहा है। इसी कारण राज्य के कई जिलों में मत्स्यपालन पर होनेवाले सेमिनार व प्रशिक्षण कार्यक्रमों में कविंद्र को भाग लेने का अवसर मिला, जहां किसानों को कुछ सिखाया और कुछ सीखा भी। आज कविंद्र अपनी पहचान मत्स्य उत्पादक के साथ-साथ प्रगतिशील किसान बनाने में सफल रहे हैं। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल वाले तालाब की चारों ओर बांध बना है, उसके ऊपर अरहर की की खेती की है, जिससे प्रति वर्ष करीब 20 हजार रुपये की आमदनी होती है। तालाब के चारों ओर प्रयोग के तौर पर 300 सहजन लगाये हैं।
- प्रामाणिक बीज उत्पादन कृषि विज्ञान केंद्र, नूरसराय (नालंदा) पूसा कृषि विश्वविद्यालय, समस्तीपुर की एक शाखा है। वहां के वैज्ञानिकों का सहयोग उन्हें बराबर मिलता रहता है। मछली उत्पादन, हल्दी एवं सब्जी की खेती की आय से उनके बच्चे राज्य से बाहर रह कर उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं।
- आज आसपास के गांवों के कई किसान इनकी देखरेख में खेती एवं मत्स्यपालन कर रहें हैं। इन सब के अलावा कवींद्र कुमार नुरसराय आत्मा एवं नालंदा जिला खादी ग्रामोद्योग के अध्यक्ष भी हैं। इसके साथ उन्हें जिला प्रशासन व विश्वविद्यालय की ओर से कइे पुरस्कार मिले। जिला में इतना सब एक साथ कर पाना किसी आम आदमी किसान के लिए संभव नहीं था। पर उन्होंने कहा कि यदि आपके अंदर कुछ करने की इच्छाशक्ति हो और उसे अपना एक मिशन मान कर करें तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। क्योंकि जब आप कुछ नया करते हैं
- जिससे आपके आसपास लोगों को लगता है कि अमचक कार्य करने से पूरा समाज लाभान्वित हो रहा है तो लोग अपने एक कड़ी के रूप में जुड़ते जाते हैं, जो आप की सफलता का राज होता है।
स्त्रोत : संदीप कुमार,स्वतंत्र पत्रकार,पटना बिहार ।
Last Modified : 2/22/2020
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